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Tuesday, September 27, 2011

असंतुलन - डॉ नूतन डिमरी गैरोला

 


        justice-vicitm

मेरी धरती मेरा आसमां

चरणों पे तेरे मैंने शीश झुका लिया था

फिसली मैं अगर तो भी  गिरी नहीं

गिरने से तुने मुझे बचा लिया था

धरती ने मुझे गोद में थामा

आकाश ने मुझे ऊँगली पकड़ उठा लिया था|

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ये मेरे जमीं आसमां  थे ...पर आज सोचती हूँ मैं कहाँ ....

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मैं अपनी धरती पर खड़ी हूँ पर आसमां मेरा नहीं...

आसमां को तलाश लेती हूँ तो वहाँ मेरी धरती नहीं ...

इस असंतुलन में झूलते झूलते

मैं खुद को निहारती हूँ तो पाती हूँ, मैं जो हूँ वो ही मैं नहीं....

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खो दिया है मैंने खुद को..... 

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दुनियादारी की जिम्मेदारियों में ...या सवारने में अपनी रूचियाँ |

जिम्मेदारियां अपनों की अपनी जिम्मेदारियों की ..

दौड़म दौड़, भागमभाग जाने .. जिंदगी की गाड़ी सुस्ताना चाहती है, रुकना चाहती है  ..लेकिन मंथर गति होते ही ठेलम ठेल ..

और रूचि, अभिलाषा भी अधिकार ज़माने लगी है ... अपने प्रति जिम्मेदारियां का अहसास जगाने लगी हैं .....

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सोचती हूँ इन सब को छोड़ कर शांति की खोज में चले जाऊं ....

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शांति तो बाहर भी होगी कहीं  और है मन के अंदर भी

अब इस शान्ति की खोज में कहाँ जाऊं ...

क्या बता सकेगा कोई .. ..कहाँ जाऊं किधर जाऊं .... 

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.…

9 comments:

upendra shukla said...

bahut hi acchi prastuti rahi

रविकर said...

बहुत सुन्दर ||

मनभावन प्रस्तुति पर बधाई ||

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

भावों की गहन अभिव्यक्ति ...

अनामिका की सदायें ...... said...

han bata sakte hain na.....

karm hi pooja hai....isi me khushi dhoond lo.

khushi milegi to dharti milegi hi...aur jahan dharti milegi ambar apne aap chala aayega. :)

sunder....ati sunder.

Atul Shrivastava said...

मन के भीतर के अंतरदृंद्व को बेहतर तरीके से प्रस्‍तुत करती रचना।

Maheshwari kaneri said...

गहन भाव लिए सुन्दर प्रस्तुति...

Santosh Kumar said...

सुन्दर रचना.. मन के अंदर शांति हो तो बाहर भी आसानी से मिल जाए.

मेरे नए पोस्ट पर आपका स्वागत है.
www.belovedlife-santosh.blogspot.com

डॉ. जेन्नी शबनम said...

bahut sundar abhivyakti, badhai.

Shri Sitaram Rasoi said...

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