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Friday, July 12, 2013

जिंदगी में कितना मजबूर होते हैं हम ----



औरों के लिए .. जाना है मैंने, हम मर कर भी कैसे जिन्दा रह लेते है ... अपनों के लिए ... वह मेरी आस्था का मेरे विश्वास का कोमल पौधा था, नन्हा सा .. जिस पर टिक चुकी थी मेरी जान .. मेरी साँसें मेरा यकीन ... कि मैं आखिरी दिन भी गीत गाती रही थी माँ के साथ और उसके आलिंगन मे सोयी थी उस रात भी .. नहीं पता था यह विदाई की होगी आखिरी काली रात .. जबकि दुसरी रात भी वह थीं पर निर्दयी अस्पताल की नियमों ने मां से अलग कर दिया .. माँ के जाने के बाद जीवन की कोई इच्छा नहीं रही, पर यहाँ पर रुदन नहीं लिखूंगी, पर हां मैंने भी बेटों की तरह १३ दिन तक साबुन नहीं लगाया कंघी नहीं छुई .. कुछेकों ने कहा तुम लड़की हो.. यह लड़कियों को जंचता नहीं... मैंने सिर्फ यही जाना मैं उनकी संतान हूँ लड़का लड़की नहीं .. दुःख मे खुद ही सब कुछ त्यागने का मन हुआ ...

तेहरवीं में पंडित जी ने एक पीपल का छोटा पौधा माँ के नाम से दिया और उसे बोने के लिए कहा ... मेरा/ हमारा पूरा ध्यान उस पौधे पर चला गया ... वह हमारी माँ के नाम से था .. माँ के बिना तडपते मन को अब उस पौधे की पत्तियों में तने मे माँ का स्वरुप जीता हुआ दिखने लगा ... बड़े भाई और पिता जी ने ऋषिकेश से आगे ब्रह्मपुरी के पास एक मोड़ पर, सड़क से काफी भीतर जा कर वह पौधा लगाया वहाँ पानी की एक पतली धारा बहती थी .... बस अब कभी भी हम श्रीनगर से देहरादून जाते. या भाई लोग लखनऊ या जोशीमठ से आते जाते तो अपने वाहन से उतरते और उस पौधे को देखने जाते ... घर का हर सदस्य जब भी जाता वहाँ जाता ... और वह पौधा खिलने लगा उसके पत्ते हरे हरे .. कई शाखाएं उस पर आ गयी... हम जब भी उतरते कुछ समय उस पौधे के साथ बिताते .. मैं अकेले में आँख बंद कर माँ का होना इस रूप में महसूस करती और उनका हमारे साथ होना लगता, मां के बिना मन बहुत बहुत व्याकुल था हर राह मां को ढूंढती, लेकिन वही एक जगह थी जहां आ कर सकून मिलता ... हम उसकी तस्वीर भी खींचते और पिता जी को दिखाते .. पिता जी की सूनी आँखों मे एक झलक खुशी की फ़ैल जाती और वह माँ का नाम बुदबुदा जाते ... वह तीन चार महीने मे तीन फीट का लगभग हराभरा नन्हे से वृक्ष मे तब्दील हो रहा था ...

अब काफी दिन हो गए थे लगभग डेढ महीने, जबकि हम चारो भाईबहन और परिवार का वहाँ से जाना नहीं हुआ .. और जब जाना हुआ तो पिता जी ने कहा उस पीपल को भी देख कर आना कैसा हुआ .. उसकी फोटो खिंच के लाना ... हम जैविक खाद ले कर गए ...

लेकिन यह क्या ? हम उस मोड पर पहुंचे तो वहाँ का सीन सब बदला हुआ था ..... उस मोड को बहुत अंदर तक मशीनों से काट कर गहरे अंदर जंगल तक चौड़ा कर दिया गया ... पेड़ पौधों का कहीं नामो निशान नहीं था| ... वह पीपल का पौधा मिट्टी के साथ उखाड कर जाने किस पहाड़ी के नीचे फैंक दिया गया ....

हम सब आपस मे कुछ नहीं बोल पाए ... हमारे शब्द हमारे गले मे फंस गए आवाज रुंध गयी ... मन में एक कटुता पैदा हुई, मन विह्वल हो गया| किस तरह से मन मार कर इसे स्वीकार नहीं करते हुए भी चुपचाप स्वीकृति देनी पड़ी, पिता जी को भी बताना पड़ा .. तब जाना जिंदगी ऐसी ही है ... हम कितने निरीह है इस भाग्य और प्रकृति के सामने , मजबूर और असहाय हो कर हमें परिस्थितियों को वैसे ही स्वीकारना पड़ता है और जीना पड़ता है|


सोचती हूँ उत्तराखंड मे आपदा में लोगो ने अपनों को गंवाया और बिना उनके पार्थिव शरीर को प्राप्त किये उन्हें मौत को स्वीकारना पड़ा| एक आदमी और उसके बेटे को रोते देखा TV पर जिन्होंने ५ दिन तक अपनी पत्नी - माँ के पार्थिव शरीर को कन्धों पर लाद और घसीट कर अपने साथ रखा - उस पहाड़ पर उन्हें १० मीटर भी नहीं चला जा रहा था, बिना खाए पिए और मगर पार्थिव शरीर तो सड़ने लगा और बाद मे उन्हें मजबूरी में शव को जो की उनकी माँ थी पत्नी थी, को अपने हाथों से पहाड़ी से नीचे खाई में फैंकना पड़ा, परिस्थितियां कितनी बेबस बना देती हैं ... और बेबसियों के साथ चलते रहना जिंदगी है बेशक समय इन घावों को हल्का कर देता है पर मन मे एक दाग सदा पीड़ाता है|

Monday, August 20, 2012

फिर एक नया कान - डॉ नूतन गैरोला

ear

उसकी देह पर

कितने ही कान उग आये थे |

हर बार एक नया कान

पर

भाग्य की वो लकीरें

हाथ की

जो जोड़ती थी अपनों से

बर्तनों को रगड़ते रगड़ते

कबकी घिस चुकी थीं|

 

हर बार दुत्कार ..

और कितने ही कानों का बोझा लिए

मात्र दो आँखें 

घूंट घूंट समुन्दर पीया करती थीं |

झूठन को पोंछता

छोटू

सुबह का सूरज भोर भये अंगीठी की आंच पर रखता

और दिन की सीमित चादर से

आसमां से फैले असीमित कामों को

पूरा कर ढकने  की पूरी कोशिश करता 

थकान कहीं छलके न,   दिन की चादर के किनारी पर चुपके उसकी पोटली बांधता

रात्री के अंधेरो पर विसर्जित करता|

इससे पहले    

रात को चाँद की चांदनी, पृथ्वी से भारी बर्तनों पर निखारता

सबको मुस्कुराता भोजन कराता

खुद

स्वाभिमान की थाली पर

दुत्कार, शोषण की जूठन रख भोजन करता|

 

और जब असहनीय हो जाता|

प्रताडनाओं के खौफ से

बंद पड़ जाते उसके पुराने कान

बिल्कुल बहरा हो जाता वह दुत्कार के लिए|

तड़प उठता वह फिर प्यार के लिए |

फिर एक नयी दौड

इस होटल से उस होटल तक शुरू होती

और फिर उसके बदन पर उग आते

बहुत ही संवेदनशील जो हर दिशाओं में घूमते है

प्यार के दो शब्द और

अपनेपन से भरी एक आवाज को सुनने को  तरसते

आशाओं से भरे

पुराने कानों की भीड़ में

एक अदद नए कान|… …

Sunday, December 4, 2011

तुम, मैं और वह कविता

 

                                                                                                                           4481012218_a66889ab28  

तुम्हें याद है क्या कि तुम किसी अनजान की कविता सुना रहे थे उस रात ..शायद तुमको तो  मालूम था तब कि कविता किसकी थी .. मैं तो  बस सुन रही थी ...सुनना मेरा काम था और सुनाना तुम्हारा  .. तुम  तो कविता में खोये थे और मैं, मैं  तुम  में ..

तुम  बोले जा रहे थे --

कुछ विकल जगारों की लाली

कुछ अंजन  की रेखा काली

उषा के अरुण झरोखे में

जैसे हो काली रात बसी

दो नयनों में बरसात बसी  ..

बिखरी बिखरी रूखी पलकें

भीगी भीगी भारी पलकें

प्राणों में कोई पीर बसी

मन में है कोई बात बसी

दो नयनों में बरसात बसी ...

         तुम  सुना रहे थे ..उधर बाहर बारिश का शोर था और इधर अंदर मेरी आँखों में भी बरसात का जोर था .. तुम  इन सबसे अनभिज्ञ पूरे मनोयोग से किताब पर मन लगाए हुवे थे और यह  बेदर्द कविता ज्यूं  मेरे ही हाल को बयां कर रही थी ...यही वह कविता थी न जिसने तुमको  मुझसे दूर कर दिया था| साथ रह कर भी हम तुम कहाँ साथ थे ….क्या तुम्हें मालूम है कि आज भी तुम यह कविता मेरे लिए गा सकते हो क्योंकि कुछ मेरा हाल ऐसा ही हो कर रह गया ... और मैं भी गुनगुना रही हूँ एक कविता की पंक्तियाँ

अब छूटता नहीं छुडाये

रंग गया ह्रदय है ऐसा

आंसूं से धुला निखरता

यह रंग अनोखा कैसा |

कामना कला की विकसी

कमनीय मूर्ति बन तेरी

खींचती है ह्रदय पटल पर

अभिलाषा बन कर मेरी |....

                              

                      अब तो मैं भी जानने लगी हूँ कि यह कविता किस ने लिखी है क्यूंकि अब मुझे भी कविताओं से प्रेम होने लगा है|......... रंग गयी हूँ रंग में तेरे .....और रॅाक स्टार मूवी के गाने के बोल फूट रहे है --

 

रंगरेज़ा रंगरेज़ा रंग मेरा तन मेरा मन

ले ले रंगाई चाहे तन चाहे मन

रंगरेज़ा रंगरेज़ा रंग मेरा तन मेरा मन

ले ले रंगाई चाहे तन चाहे मन ..

Tuesday, November 22, 2011

मेरा प्रेम मेरी चाय - डॉ नूतन गैरोला

                                                                                                                                                                    
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तू कड़क
तू है मीठी
अलसाई सी है हर सुबह
बिन तेरे .......
बिन तेरे
एक प्यास अनबुझी सी
हर शाम अधूरी सी ......
एक तलब
लबों तक आ कर बूझे
अंदाज है शौक़ीनों का
आवाज हैं चुस्की की  .....

 

डॉ नूतन गैरोला

 

प्रकृति से तो सभी प्रेम करते हैं पर व्यक्तिक तौर पर प्रेम हम किस से करते है - व्यक्ति विशेष, वस्तु विशेष, आदत विशेष, या शौक विशेष से|   और चाय के प्रति मेरा अगाध प्रेम है … वैसे भी हम पहाड़ियों को तो ठण्ड में राहत देने के लिए चाय एक शौक ही नहीं एक आदत बन जाती है जिसके बिना अधूरा अधूरा सा लगता है..


                        

Tuesday, September 27, 2011

असंतुलन - डॉ नूतन डिमरी गैरोला

 


        justice-vicitm

मेरी धरती मेरा आसमां

चरणों पे तेरे मैंने शीश झुका लिया था

फिसली मैं अगर तो भी  गिरी नहीं

गिरने से तुने मुझे बचा लिया था

धरती ने मुझे गोद में थामा

आकाश ने मुझे ऊँगली पकड़ उठा लिया था|

.

.

ये मेरे जमीं आसमां  थे ...पर आज सोचती हूँ मैं कहाँ ....

.

.

मैं अपनी धरती पर खड़ी हूँ पर आसमां मेरा नहीं...

आसमां को तलाश लेती हूँ तो वहाँ मेरी धरती नहीं ...

इस असंतुलन में झूलते झूलते

मैं खुद को निहारती हूँ तो पाती हूँ, मैं जो हूँ वो ही मैं नहीं....

.

.

खो दिया है मैंने खुद को..... 

.

.

दुनियादारी की जिम्मेदारियों में ...या सवारने में अपनी रूचियाँ |

जिम्मेदारियां अपनों की अपनी जिम्मेदारियों की ..

दौड़म दौड़, भागमभाग जाने .. जिंदगी की गाड़ी सुस्ताना चाहती है, रुकना चाहती है  ..लेकिन मंथर गति होते ही ठेलम ठेल ..

और रूचि, अभिलाषा भी अधिकार ज़माने लगी है ... अपने प्रति जिम्मेदारियां का अहसास जगाने लगी हैं .....

.

.

सोचती हूँ इन सब को छोड़ कर शांति की खोज में चले जाऊं ....

.

.

शांति तो बाहर भी होगी कहीं  और है मन के अंदर भी

अब इस शान्ति की खोज में कहाँ जाऊं ...

क्या बता सकेगा कोई .. ..कहाँ जाऊं किधर जाऊं .... 

.

.…

Thursday, August 4, 2011

हम सब एक हैं ….डॉ नूतन गैरोला

Religions-in-India1 

 

तुमने कभी इंसान की हड्डी को देखा है
कही भी जा दिखेगी हड्डी होती सिर्फ सफ़ेद है
क्या बोलती है वो
मैं हिंदू हूँ, मै मुस्लिम हूँ या कि ईसाई और सिख?


कभी पानी ना मिलेगा तो जानोगे प्यास होती है क्या?
पानी मांगेगा हिंदू , मांगेगा मुसलमान, मांगेगा ईसाई और सिख|

जख्म होगा देह में तो बहेगा खून सबका
खून का रंग होता है लाल
हिंदू में, मुसलमां में, ईसाई में और सिख में |

जाना है तुमने क्या, भाई भाई का खून कभी कभी
आपस में मिलता नहीं, रक्तदान के लिए आता है जो
वो अनजान भाई होता है कोई हिंदू, कोई मुसलमान, कोई ईसाई या सिख |

कभी जाना है तुमने धर्म होता है क्या पूजा होती है क्या
सत्मार्ग दिखाये धर्म
और भावनाये पूजा में होती हैं-
मानवता के कल्याण की, प्रेम की सौहार्द की
सत्मार्ग दिखाए चाहे धर्म हो हिंदू या कि मुस्लिम या ईसाई या सिख|
फिर ये नफरत की दीवारें क्यों, लहू लहू का प्यासा क्यों |

नूतन गैरोला .. ४ / अगस्त / २०११ १० :५२

 

अभी लिखी और पोस्ट की है …. बाद में एडिटिंग होगी.. मुस्‍कान

Wednesday, August 3, 2011

हम सब एक हैं ….डॉ नूतन गैरोला

Religions-in-India1 

 

तुमने कभी इंसान की हड्डी को देखा है
कही भी जा दिखेगी हड्डी होती सिर्फ सफ़ेद है
क्या बोलती है वो
मैं हिंदू हूँ, मै मुस्लिम हूँ या कि ईसाई और सिख?


कभी पानी ना मिलेगा तो जानोगे प्यास होती है क्या?
पानी मांगेगा हिंदू , मांगेगा मुसलमान, मांगेगा ईसाई और सिख|

जख्म होगा देह में तो बहेगा खून सबका
खून का रंग होता है लाल
हिंदू में, मुसलमां में, ईसाई में और सिख में |

जाना है तुमने क्या, भाई भाई का खून कभी कभी
आपस मिलता नहीं, रक्तदान के लिए आता है जो
वो अनजान भाई होता है कोई हिंदू, कोई मुसलमान, कोई ईसाई या सिख |

कभी जाना है तुमने धर्म होता है क्या पूजा होती है क्या
सत्मार्ग दिखाये धर्म
और भावनाये पूजा में होती हैं-
मानवता के कल्याण की, प्रेम की सौहाद्र की
सत्मार्ग दिखाए चाहे धर्म हो हिंदू या कि मुस्लिम या ईसाई या सिख|
फिर ये नफरत की दीवारें क्यों, लहू लहू का प्यासा क्यों |

नूतन गैरोला .. ४ / अगस्त / २०११ १० :५२

 

अभी लिखी और पोस्ट की है …. बाद में एडिटिंग होगी.. मुस्‍कान