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Friday, June 24, 2011

कमल और कीचड़ - डॉ नूतन गैरोला

           kamal 

मौन हैं सब
खामोश
कीचड़ से सने हाथ
और कमर तक दलदल में फंसे हुवे
उन्होंने नवाजा था कमल को
पूजा था जिस जगह को
वो तो उपवन था कमल का
पंखुडियां नित रंग भरने लगी,
इठलाने लगी
प्रशंसक और नजदीक जाने लगे
ध्यान न था गजदन्त सा रूप
खाने के कुछ दिखाने के कुछ |  
उलझने लगे इंद्रजाल के छद्म में
रूप के मायाजाल में
फंसने लगे, डूबने लगे|
यूं तो शीशे के घर उनके नहीं,
पर अब इस धोखे पर
पत्थर उठायें नहीं जाते  
क्यूंकि कीचड़ मुँह पर उछलता है|

8 comments:

Amrendra Nath Tripathi said...

इसीलिये कीचड़ में रहकर कमल की साधना, बाहर से प्रतिकार की तुलना में, ज्यादा और सक्रिय बड़ा प्रतिकार है।

रविकर said...

क्यूंकि कीचड़ मुँह पर उछलता है|

बहुत सुन्दर
सारगर्भित ||

पर
पर आज की दुनिया में तो
सब चलता है ||
कीचड़ किसे खलता है --
तब भी नहीं
जब कोई
किसी के या
अपने मुख पर मलता है ||

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

बहुत सुन्दर रचना!
कमल हो या कुमुद दोनों ही कीचड़ से ऊपर सिर उठा कर मुस्कराते हैं!

मनोज कुमार said...

सुंदर भावना को प्रेषित करती स्वच्छ मन की कोमल अभिव्यक्ति मन को हर्षित कर गए।

upendra shukla said...

bahut hi acchi kavita hai nutan ji
"samrat bundelkhand"
or nutan ji main aapko aage pdf file ke baare me jarur batauga

मुसाफिर क्या बेईमान said...

कमल को जिन्दगी के साथ खूबसूरत ढंग से जोड़ कर इंसानी प्रवृति को उजागर किया है. बहुत खूबसरत.

महेन्द्र श्रीवास्तव said...

बहुत सुंदर रचना..

प्रशंसक और नजदीक जाने लगे
ध्यान न था गजदन्त सा रूप
खाने के कुछ दिखाने के कुछ |
उलझने लगे इंद्रजाल के छद्म में

वाह जी

amrendra "amar" said...

bahut umda rachna man ko chu gayi

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