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मौन हैं सब खामोश कीचड़ से सने हाथ और कमर तक दलदल में फंसे हुवे उन्होंने नवाजा था कमल को पूजा था जिस जगह को वो तो उपवन था कमल का पंखुडियां नित रंग भरने लगी, इठलाने लगी प्रशंसक और नजदीक जाने लगे ध्यान न था गजदन्त सा रूप खाने के कुछ दिखाने के कुछ | उलझने लगे इंद्रजाल के छद्म में रूप के मायाजाल में फंसने लगे, डूबने लगे| यूं तो शीशे के घर उनके नहीं, पर अब इस धोखे पर पत्थर उठायें नहीं जाते क्यूंकि कीचड़ मुँह पर उछलता है|
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8 comments:
इसीलिये कीचड़ में रहकर कमल की साधना, बाहर से प्रतिकार की तुलना में, ज्यादा और सक्रिय बड़ा प्रतिकार है।
क्यूंकि कीचड़ मुँह पर उछलता है|
बहुत सुन्दर
सारगर्भित ||
पर
पर आज की दुनिया में तो
सब चलता है ||
कीचड़ किसे खलता है --
तब भी नहीं
जब कोई
किसी के या
अपने मुख पर मलता है ||
बहुत सुन्दर रचना!
कमल हो या कुमुद दोनों ही कीचड़ से ऊपर सिर उठा कर मुस्कराते हैं!
सुंदर भावना को प्रेषित करती स्वच्छ मन की कोमल अभिव्यक्ति मन को हर्षित कर गए।
bahut hi acchi kavita hai nutan ji
"samrat bundelkhand"
or nutan ji main aapko aage pdf file ke baare me jarur batauga
कमल को जिन्दगी के साथ खूबसूरत ढंग से जोड़ कर इंसानी प्रवृति को उजागर किया है. बहुत खूबसरत.
बहुत सुंदर रचना..
प्रशंसक और नजदीक जाने लगे
ध्यान न था गजदन्त सा रूप
खाने के कुछ दिखाने के कुछ |
उलझने लगे इंद्रजाल के छद्म में
वाह जी
bahut umda rachna man ko chu gayi
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