उसकी देह पर
कितने ही कान उग आये थे |
हर बार एक नया कान
पर
भाग्य की वो लकीरें
हाथ की
जो जोड़ती थी अपनों से
बर्तनों को रगड़ते रगड़ते
कबकी घिस चुकी थीं|
हर बार दुत्कार ..
और कितने ही कानों का बोझा लिए
मात्र दो आँखें
घूंट घूंट समुन्दर पीया करती थीं |
झूठन को पोंछता
छोटू
सुबह का सूरज भोर भये अंगीठी की आंच पर रखता
और दिन की सीमित चादर से
आसमां से फैले असीमित कामों को
पूरा कर ढकने की पूरी कोशिश करता
थकान कहीं छलके न, दिन की चादर के किनारी पर चुपके उसकी पोटली बांधता
रात्री के अंधेरो पर विसर्जित करता|
इससे पहले
रात को चाँद की चांदनी, पृथ्वी से भारी बर्तनों पर निखारता
सबको मुस्कुराता भोजन कराता
खुद
स्वाभिमान की थाली पर
दुत्कार, शोषण की जूठन रख भोजन करता|
और जब असहनीय हो जाता|
प्रताडनाओं के खौफ से
बंद पड़ जाते उसके पुराने कान
बिल्कुल बहरा हो जाता वह दुत्कार के लिए|
तड़प उठता वह फिर प्यार के लिए |
फिर एक नयी दौड
इस होटल से उस होटल तक शुरू होती
और फिर उसके बदन पर उग आते
बहुत ही संवेदनशील जो हर दिशाओं में घूमते है
प्यार के दो शब्द और
अपनेपन से भरी एक आवाज को सुनने को तरसते
आशाओं से भरे
पुराने कानों की भीड़ में
एक अदद नए कान|… …
13 comments:
बहुत संवेदनशील रचना
बहुत ही संवेदनशील रचना ... कड़वी हकीकत को हूबहू लिखा है ... समाज के इस पहलू से कब छुटकारा मिलेगा ... कहना मुश्किल है ...
संवेदनाओं से भरपूर है
घर से दूर शहर एक कहीं
बहुत से ऎसे कानों से भरा है
पर कौन सुन रहा है !
बेहद मार्मिक और मर्मस्पर्शी कविता
सादर
bahut sundar nutan ji...
बहुत मार्मिक पर एक कड़वी सच्चाई दो वक़्त की रोटी के लिए कितनी जिल्लतों का सामना करते हैं ये मासूम
bahut marmik .
WORLD'S WOMAN BLOGGERS ASSOCIATION-JOIN THIS NOW
कल 24/08/2012 को आपकी यह बेहतरीन पोस्ट http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
धन्यवाद!
मर्मस्पर्शी रचना...
हृदयस्पर्शी बेहतरीन रचना!
बालश्रम पर आपकी ये कविता एक अनोखा अंदाज लिये हैं । सचमुच तरस जाते हैं इनके कान दो प्यार के बोलों के लिये ।
आपका ब्लॉग यहाँ शामिल किया गया है । अवश्य पधारें और अपनी राय से अवगत कराएँ ।
ब्लॉग"दीप"
पुराने कानों की भीड़ में
एक अदद नए कान…
सहज पर गहन अनुभूति
सुंदर रचना
उत्कृष्ट प्रस्तुति
आग्रह है मेरे ब्लॉग में भी सम्मलित हों
कहाँ खड़ा है आज का मजदूर------?
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