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मौन हैं सब खामोश कीचड़ से सने हाथ और कमर तक दलदल में फंसे हुवे उन्होंने नवाजा था कमल को पूजा था जिस जगह को वो तो उपवन था कमल का पंखुडियां नित रंग भरने लगी, इठलाने लगी प्रशंसक और नजदीक जाने लगे ध्यान न था गजदन्त सा रूप खाने के कुछ दिखाने के कुछ | उलझने लगे इंद्रजाल के छद्म में रूप के मायाजाल में फंसने लगे, डूबने लगे| यूं तो शीशे के घर उनके नहीं, पर अब इस धोखे पर पत्थर उठायें नहीं जाते क्यूंकि कीचड़ मुँह पर उछलता है|
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मैंने देखा था इक सपना
एक रेलगाड़ी और हम
पिताजी टिकट ले कर आते हुवे
और लोग स्टेशन का पता पूछते हुवे
इतने में रेल चल पड़ी थी
खड़े रह गए थे वो(पिता जी ) अकेले स्टेशन में
बेहद घबराये छटपटाये थे
और याद नहीं घर के लोग किधर बिखर गए थे
रेलगाडी दौड़ रही थी सिटी बजाती
और उस डब्बे में थे तुम और मैं
और कुछ भीड़ सी औरतों की, मर्दों की,
भजन गाती|
कुछ अनचाहे चेहरे, क्रूर से, मेरे पास से गुजरे थे
और तुम ने समेट लिया था मुझे,
छुपा लिया था मुझको खुद के आगोश में
स्नेह भरे उस आलिंगन में फेर लिया था मेरे सर पे हाथ
कितना भा रहा था मुझको तेरा मेरा साथ
भीग रहा था मन और तन, झूम स्नेह की बरखा आई
इतने में एक आवाज तुम्हारी पगी प्रेम में आई
जो बोला तुमने भी न था, न मैंने कानों से सुनी
वो आवाज मेरी आँखों ने मन-मस्तिष्क से पढ़ी
तुमने कहा मजबूत बनों खुद, ये साथ न रहे कल तो?
और तुम्हारे चेहरे पर चिंता की लकीरें खिंच आयीं थी |
जाने क्यों वक़्त रेल की गति से तेज भागता जाने कहाँ रिस गया
जाने क्यों मैं नीचे की बर्थ पे बैठी रही
और तुम ऊपर की बर्थ में कुछ परेशान सोच में |
रेल धीरे.. धीरे... धीरे.... और रुकने लगी
साथ भजन की आवाजे तेज तेज तेजतर गूंजने लगी
जाने क्यों में रेल से नीचे उतर आयी कानों में लिए भजन की आवाज
रेल का धुवां और सिटी की आवाज जब दूर से कानों पे आई
तो जाना मैं अकेले स्टेशन में थी
और वह रेल तुम्हें ले कर द्रुत गति से चल दी थी आगे कहाँ, जाने किस जहां
तुम्हारे वियोग में मैं हाथ मलती खड़ी बहुत पछताई
और टूट गया था वो सपना, था वो कुछ पल का साथ
मैं भीगी थी पसीने से और बीत रही थी रात
आँसू के सैलाब ने मुझको घेरा था
मैंने जाना सब कुछ देखा जैसा, वैसा ही तो था
क्यों पिताजी की आँखों में सदा रहती थी नमी
हमारी खुशियों की खातिर सदा मुस्कुरा रहे थे वो
जब कि उनको भी बेहद कचोट रही थी कमी...
तब चीख के मैंने उन रात के सन्नाटों को पुकारा था...
उस से पूछा था
तुम कहीं भी फ़ैल जाते हो एक सुनसान कमरे से एक भीड़ में
अँधेरे से उजाले में, धरती-पाताल से आकाश और दूर शून्य में
और वो तारा टिमटिमा रहा है जहाँ, वहाँ भी तो तुम रहते हो
फिर तुमने देखा तो होगा उनको .. बोलो बोलो मेरी माँ है कहाँ ..
सन्नाटा भी था मौन और फिर हवा से कुछ पत्तों के गिरने की आवाज थी..
जैसे कह रहें हों कि जो आता है जग में वो एक दिन मिट्टी में मिल जाता है..
तुम मिट्टी में मिल गयी ये स्वीकार नहीं मुझको
फिर वो रेल कहाँ ले गयी तुमको
किस परालोकिक संसार में
पुकारती हूँ तुमको फिर भी इस दैहिक संसार में ...
बोलो मेरी प्यारी माँ तुम कहाँ, तुम कहाँ
इंतजारी है मुझको अब उस रेल की
तुमसे दो घडी का नहीं, जन्म जन्म के मेल की ..
डॉ नूतन गैरोला
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