औरों के लिए .. जाना है मैंने, हम मर कर भी कैसे जिन्दा रह लेते है ... अपनों के लिए ... वह मेरी आस्था का मेरे विश्वास का कोमल पौधा था, नन्हा सा .. जिस पर टिक चुकी थी मेरी जान .. मेरी साँसें मेरा यकीन ... कि मैं आखिरी दिन भी गीत गाती रही थी माँ के साथ और उसके आलिंगन मे सोयी थी उस रात भी .. नहीं पता था यह विदाई की होगी आखिरी काली रात .. जबकि दुसरी रात भी वह थीं पर निर्दयी अस्पताल की नियमों ने मां से अलग कर दिया .. माँ के जाने के बाद जीवन की कोई इच्छा नहीं रही, पर यहाँ पर रुदन नहीं लिखूंगी, पर हां मैंने भी बेटों की तरह १३ दिन तक साबुन नहीं लगाया कंघी नहीं छुई .. कुछेकों ने कहा तुम लड़की हो.. यह लड़कियों को जंचता नहीं... मैंने सिर्फ यही जाना मैं उनकी संतान हूँ लड़का लड़की नहीं .. दुःख मे खुद ही सब कुछ त्यागने का मन हुआ ...
तेहरवीं में पंडित जी ने एक पीपल का छोटा पौधा माँ के नाम से दिया और उसे बोने के लिए कहा ... मेरा/ हमारा पूरा ध्यान उस पौधे पर चला गया ... वह हमारी माँ के नाम से था .. माँ के बिना तडपते मन को अब उस पौधे की पत्तियों में तने मे माँ का स्वरुप जीता हुआ दिखने लगा ... बड़े भाई और पिता जी ने ऋषिकेश से आगे ब्रह्मपुरी के पास एक मोड़ पर, सड़क से काफी भीतर जा कर वह पौधा लगाया वहाँ पानी की एक पतली धारा बहती थी .... बस अब कभी भी हम श्रीनगर से देहरादून जाते. या भाई लोग लखनऊ या जोशीमठ से आते जाते तो अपने वाहन से उतरते और उस पौधे को देखने जाते ... घर का हर सदस्य जब भी जाता वहाँ जाता ... और वह पौधा खिलने लगा उसके पत्ते हरे हरे .. कई शाखाएं उस पर आ गयी... हम जब भी उतरते कुछ समय उस पौधे के साथ बिताते .. मैं अकेले में आँख बंद कर माँ का होना इस रूप में महसूस करती और उनका हमारे साथ होना लगता, मां के बिना मन बहुत बहुत व्याकुल था हर राह मां को ढूंढती, लेकिन वही एक जगह थी जहां आ कर सकून मिलता ... हम उसकी तस्वीर भी खींचते और पिता जी को दिखाते .. पिता जी की सूनी आँखों मे एक झलक खुशी की फ़ैल जाती और वह माँ का नाम बुदबुदा जाते ... वह तीन चार महीने मे तीन फीट का लगभग हराभरा नन्हे से वृक्ष मे तब्दील हो रहा था ...
अब काफी दिन हो गए थे लगभग डेढ महीने, जबकि हम चारो भाईबहन और परिवार का वहाँ से जाना नहीं हुआ .. और जब जाना हुआ तो पिता जी ने कहा उस पीपल को भी देख कर आना कैसा हुआ .. उसकी फोटो खिंच के लाना ... हम जैविक खाद ले कर गए ...
लेकिन यह क्या ? हम उस मोड पर पहुंचे तो वहाँ का सीन सब बदला हुआ था ..... उस मोड को बहुत अंदर तक मशीनों से काट कर गहरे अंदर जंगल तक चौड़ा कर दिया गया ... पेड़ पौधों का कहीं नामो निशान नहीं था| ... वह पीपल का पौधा मिट्टी के साथ उखाड कर जाने किस पहाड़ी के नीचे फैंक दिया गया ....
हम सब आपस मे कुछ नहीं बोल पाए ... हमारे शब्द हमारे गले मे फंस गए आवाज रुंध गयी ... मन में एक कटुता पैदा हुई, मन विह्वल हो गया| किस तरह से मन मार कर इसे स्वीकार नहीं करते हुए भी चुपचाप स्वीकृति देनी पड़ी, पिता जी को भी बताना पड़ा .. तब जाना जिंदगी ऐसी ही है ... हम कितने निरीह है इस भाग्य और प्रकृति के सामने , मजबूर और असहाय हो कर हमें परिस्थितियों को वैसे ही स्वीकारना पड़ता है और जीना पड़ता है|
सोचती हूँ उत्तराखंड मे आपदा में लोगो ने अपनों को गंवाया और बिना उनके पार्थिव शरीर को प्राप्त किये उन्हें मौत को स्वीकारना पड़ा| एक आदमी और उसके बेटे को रोते देखा TV पर जिन्होंने ५ दिन तक अपनी पत्नी - माँ के पार्थिव शरीर को कन्धों पर लाद और घसीट कर अपने साथ रखा - उस पहाड़ पर उन्हें १० मीटर भी नहीं चला जा रहा था, बिना खाए पिए और मगर पार्थिव शरीर तो सड़ने लगा और बाद मे उन्हें मजबूरी में शव को जो की उनकी माँ थी पत्नी थी, को अपने हाथों से पहाड़ी से नीचे खाई में फैंकना पड़ा, परिस्थितियां कितनी बेबस बना देती हैं ... और बेबसियों के साथ चलते रहना जिंदगी है बेशक समय इन घावों को हल्का कर देता है पर मन मे एक दाग सदा पीड़ाता है|