उसकी देह पर
कितने ही कान उग आये थे |
हर बार एक नया कान
पर
भाग्य की वो लकीरें
हाथ की
जो जोड़ती थी अपनों से
बर्तनों को रगड़ते रगड़ते
कबकी घिस चुकी थीं|
हर बार दुत्कार ..
और कितने ही कानों का बोझा लिए
मात्र दो आँखें
घूंट घूंट समुन्दर पीया करती थीं |
झूठन को पोंछता
छोटू
सुबह का सूरज भोर भये अंगीठी की आंच पर रखता
और दिन की सीमित चादर से
आसमां से फैले असीमित कामों को
पूरा कर ढकने की पूरी कोशिश करता
थकान कहीं छलके न, दिन की चादर के किनारी पर चुपके उसकी पोटली बांधता
रात्री के अंधेरो पर विसर्जित करता|
इससे पहले
रात को चाँद की चांदनी, पृथ्वी से भारी बर्तनों पर निखारता
सबको मुस्कुराता भोजन कराता
खुद
स्वाभिमान की थाली पर
दुत्कार, शोषण की जूठन रख भोजन करता|
और जब असहनीय हो जाता|
प्रताडनाओं के खौफ से
बंद पड़ जाते उसके पुराने कान
बिल्कुल बहरा हो जाता वह दुत्कार के लिए|
तड़प उठता वह फिर प्यार के लिए |
फिर एक नयी दौड
इस होटल से उस होटल तक शुरू होती
और फिर उसके बदन पर उग आते
बहुत ही संवेदनशील जो हर दिशाओं में घूमते है
प्यार के दो शब्द और
अपनेपन से भरी एक आवाज को सुनने को तरसते
आशाओं से भरे
पुराने कानों की भीड़ में
एक अदद नए कान|… …